Saturday, January 2, 2010

जीने दो....

हमेशा से ही जिंदगी में कोई न कोई बंधन रहा है....
कुछ वक़्त पहले तक माँ बाप के अरमान पूरे करने की लड़ाई दिल और दिमाग के बीच चलती थी
और आज पत्नी और कल शायद बच्चों के लिए जीना होगा ......इन सब के बीच अगर कोई पिसता है
तो वो मैं हूँ हो सकता है के मेरी पत्नी भी यहोई सोचती हो.....
क्या फर्क पड़ता है जब के दोनों हो और दोनों क्या हम सब ही इसी लड़ाई में पिस पिस कर खुद को जीवित दिखाई पड़ते हैं.... एकदम बार मैं सब से और खुद से बस ये ही कहना चाहता हूँ के एक बार मुझे जी लेने दो .........

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